Tuesday, May 13, 2014


घटोत्कच

 ई के लगभग मध्य में रोहतांग पर हिमपात हुआ है और कुल्लू ने स्वेटर कोट और रजाई ओढ़ ली 
है . बंद कर दिए गए सर्दियों के कपड़े फिर निकल आये हैं . जलवायु परिवर्तन की चेतावनी   के बीच कुल्लू की संस्कृति में रचनात्मक और सामाजिक गतिविधियों की सक्रियता आश्वस्त करती है . आखिर समाज की सोच में आने वाली रचनात्मकता ही प्रकृति का संरक्षण करने में भी अपनी भूमिका का निर्वाह करेगी .

गर्मियों का महीना और जाड़े की सी इस शाम में बारिश थमी है . हम लाल चाँद प्रार्थी कलाकेन्द्र में एक्टिव मोनाल कला मंच की प्रस्तुति ‘घटोत्कच’ देखने निकले हैं . तीन दिन लगातार चलने वाली इस प्रस्तुति में विपरीत मौसम के बावजूद पच्चास एक के लगभग दर्शक तो जुट ही रहे हैं . पांच छः वर्ष पहले एक दिन की प्रस्तुति के लिए भी पंद्रह –बीस दर्शक मुश्किल से  जुट पाते थे. केहर सिंह ने अपनी संस्था के माध्यम से कुल्लू में थियेटर को नए आयाम प्रदान किये हैं . इसका एक बड़ा कारण रंगकर्म की निरंतरता और प्रयोग्त्मकता हैं . उनकी प्रस्तुतियों में निर्देशन और अभिनय के साथ ही प्रकाश व्यवस्था , मंच सज्जा और वेश भूषा की बारीकियों को लेकर उत्तरोत्तर विकास देखा जा सकता है .

किसी जगह ऐसी गतिविधियों का गति पकड़ना अनायास नहीं होता . नब्बे के दशक में ब्रेख्तियन मिरर संस्था के माध्यम से रंगमच और व्यक्तित्व निर्माण हेतु संस्कृति मंत्रालय की योजना के तहत अमिताभ दास गुप्ता और नूर ज़हीर का कुल्लू आना शुरू हुआ . केहर सिंह शुरू से ही उनसे जुड़े थे . वह दिन और और आज का दिन , अमिताभ दास के गुज़र जाने के पश्चात् नूर ज़हिर के लिखे हुए इस नाटक के माध्यम से केहर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं . स्तानीय संस्कृति का रचनात्मक प्रयोग करने  का तरीका भी ब्रेख्तियन मिरर की ही देन है जिसका बखूबी प्रयोग केहर कुल्लू की वेशभूषा, लोकगीतों , नृत्य शैली और बोली के माध्यम से कर रहे हैं . क्या एक दिन ऐसे नाटक कलाकेन्द्र की परिधि से निकल कर उस लोक संस्कृति में प्रवेश कर पायेंगे जिसे मूल कथा में पिरो कर इतिहास को समकालीनता से जोड़ने का काम नाट्य विधा करती है .  कहीं न कहीं लोक शैली में नाटक को  ढाले जाने के पीछे क्या यही सोच काम नहीं करती .

कुल्लू में लोक संस्कृति की जड़ें बहुत गहरी हैं जिसका असर यहाँ के शहरी बाशिंदों पर भी अलग –अलग रूपों में होता है . मसलन बड़ी से बड़ी शादी में ‘बाजा’ देसी ही बजेगा . वही वाद्य यंत्र जो मेले –त्योहारों और देव कार्यों में प्रयोग में लाये जाते हैं . शहनाई , ढोल , नगाड़े और कनाल . आधुनिक बैंड यहाँ बुरी तरह से पिट जाता है . लाहुली बाजे का भी चलन चल निकला है . लाहुल का पड़ौसी जिला होना और वहां  की बड़ी आबादी का कुल्लू में स्थाई रूप से रहना इसके कारण 
हैं . मुझे उस दिन का इंतज़ार है जब गांव में होने वाले मेलों में इस तरह के नाटकों का मंचन होगा . आखिर एक सजग रंगकर्मी इसी तरह के साहसपूर्ण प्रयोगों के माध्यम से ही बड़े जनसमुदाय के बीच पहुँच पायेगा . दर्शक संख्या को ले कर शहर के रंगमंच से आपकी अपेक्षाओं की सीमाएं कहीं न कहीं बंध जायेंगी . ‘घटोत्कच’ की मां हिडिम्बा का मंदिर यहीं मनाली में है लेकिन घटोत्कच और हिडिम्बा के सच से परिचित होने के लिए हमें नाट्य विधा का प्रयोग अमिताभ दास गुप्ता , नूर ज़ाहिर  और हबीब तनवीर की तरह करना होगा .  
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      निरंजन देव शर्मा

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     niranjanpratima@gmail.com

Saturday, July 6, 2013

‘हिंदी सराय : अस्त्राखान वाया येरेवान’

‘हिंदी सराय : अस्त्राखान वाया येरेवान’ एक बेहद रोचक , खोजपरक और बौद्धिक यात्रा संस्मरण है . प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल की इस पुस्तक की समीक्षा ‘पुस्तक वार्ता’ के अंक ४७ में . 






विस्मृत इतिहास  की पुनर्पाठ
यदि आप को पता चले कि आपके पुरखे किसी दूर –दराज के देश में व्यापार के सिलसिले में जाते थे और वहाँ उनकी तूती बोलती थी तो भारतीय अस्मिता के उस स्वर्णिम काल खंड से मोह क्यों कर न होगा । व्यापारिक दृष्टि से हिंदुस्तानी इतने सक्षम और संपन्न थे कि अस्त्राखान के शासन ने उनकी गतिविधियों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए वहाँ एक सराय का भी निर्माण किया –हिन्दी सराय । भौगोलिक और भाषागत फ़ासलों को पाटता एक सूत्र पुरुषोत्तम अग्रवाल को इस यात्रा के लिए आमंत्रित करता है , जिसे आप शुरुआत में अतिरिक्त आग्रह भी कह सकते हैं .  लेकिन जब पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे विचारक इस यात्रा पर जाते हैं तो यह यात्रा वृतांत एक खोजपरक संस्मरण के साथ ही साहित्यिक और वैचारिक यात्रा के रूप में आकार ग्रहण करता है जो धीरे –धीरे उनकी इतिहास दृष्टि का भी परिचयक बनता है ।  

“2009 में अकथ कहानी प्रेम की’  लिखने के दौरान पढ़ा जैक गुडी की किताब  दी ईस्ट एंड दि वेस्ट में , फिर आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के इनसाइक्लोपीडिया आफ इंडियन डायस्पोरा में  कि रूस के अस्त्राखान शहर में भारतीय व्यापारियों की अच्छी –ख़ासी बस्ती थी, जार के दरबार में प्रभाव था । बस , उसी समय तय कर लिया था कि अस्त्राखान जाना ज़रूर है जल्दी से जल्दी । ...” -6
यह एक ऐसा सूत्र था जो लेखक को आमंत्रित कर रहा था भारतीय व्यापार से जुड़े एक ऐतिहासिक और अलक्षित अध्याय की पुनर्रचना हेतु  खोजपूर्ण यात्रा के लिए.   

    यदि किसी देश की आत्मा किसी कवि में बसती हो तो ऐसे देश की यात्रा करके कोई भी लेखन अपने को सौभाग्यशाली क्यों कर न समझे । कवि चारेन्त्स के शहर आरमीनिया का जिक्र करते हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल एक कवि के संघर्ष और और मानवता की रक्षा हेतु जीवन की यातना पूर्ण आहुति को लेखकीय श्रद्धा से याद करते हैं । पूंजीवाद  की विकरालता और अमानुषिकता को अश्लीलता शब्द से परिभाषित करते हुए वह बाज़ार से एक बुद्दिजीवी रचनाकार की लड़ाई को निरंतर संघर्ष के रूप में देखते हैं . आखिरकार एक बुद्दिजीवी विचारक ही बाज़ार की रंगिनियों के उसपार के अंधेरे की पहचान कर पाता है और उसके विरुद्ध आवाज़ उठा कर समाज को जगाने का जोखिम भरा काम भी करता है । इतिहास के पन्नों में दर्ज ऐसे सचेत रचनाकारों को नेत्सनाबूद  कर देने और पूरी की पूरी जातियों के नरसंहार की नृशंस घटनाओं के हवाले से अग्रवाल जी बताते हैं कि आरमीनिया में 1920 के दौर में तुर्की के आटोमान साम्राज्य द्वारा किए गए नरसंहार को तुर्की आज भी आधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं कर रहा . इतिहास के  अनुभव बताते हैं कि काल के पन्नों में दर्ज अमानवीयता का यह बोध आने वाली पीढ़ियों की स्मृति में किसी न किसी रूप में दर्ज होता रहता है और मानवता के पक्ष में ऐसे हमलों के विरोध के लिए एक बड़ा जन समुदाय सचेत रहता है ।

सितम्बर का महीना है . यूँ तो पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी विभागीय यात्रा के तहत आर्मिनिया कि राजधानी येरेवान पहुँचते हैं पर संकल्प मन में कुछ और ही है . यहाँ उपलब्ध गाड़ी के ड्राइवर आरमेन  का न केवल अंग्रेजी भाषा से बल्कि यहाँ के इतिहास –भूगोल से परिचित होना लेखक की जिज्ञासाओं के अनुकूल बैठता है . उपलब्ध समय में देखे जा सकने वाले स्थानों के चुनाव और इतिहास में दर्ज परिवर्तनों के राज़ जानने की दृष्टि से भी .

राजसत्ता और धार्मिक आस्था का रिश्ता बहुत गहरा है . आक्रमणकारी राजसत्ताएं अपने जड़ें जमाने के लिए चली आ रही धार्मिक परम्पराओं और धार्मिक विश्वासों को नष्ट करना और अपनी आस्थाओं को आरोपित करना , लंबे समय तक अपनी जड़ें ज़माने के लिए ज़रुरी समझती हैं .  बहुदेववादी आर्मीनियाई समाज में एकेश्वरवादी अवधारणा का आरोपण जिन स्थितियों में करने के प्रयास हुए उसे लेखक जर्थुस्त्रीवाद पर अध्ययनपरक जानकारी देने के बाद ईसाइयत का प्रभाव मानते हैं और पुरुषवादी सत्ता के बर्चस्व की स्थापना का प्रयास भी .  
“...तरदात (तृतीय) ने ३०१ इस्वी में ईसाइयत को शासकीय धर्म घोषित कर दिया , और देवी माँ संदारामेत के भव्य मंदिर को धवस्त करके एज्मिआजान चर्च का निर्माण किया .एकेश्वरवादी मजहबों की मिज़ाज शुरू से ही पितृसत्तात्मक रहा है , ये बहुदेववाद के ही नहीं , देवी पूजा , मातृ शक्ति पूजा के भी सख्त खिलाफ रहे हैं ... “ -४०     

 सत्ता और समाज , और कभी –कभी केवल सत्ता मुक्ति की आकंक्षा और चाह में पुराने प्रतीकों को ध्वस्त करके उन नए प्रतीकों का निर्माण करती है जिनसे उसकी अस्मिता की पहचान होती है . पुरुषोतम अग्रवाल विक्ट्री पार्क की यात्रा के दौरान यह तथ्य रेखांकित करते हैं . सोवियत रूस के प्रभाव से मुक्त होने के बाद जहाँ स्टालिन की प्रतिमा थी उसका स्थान अब माँ आरमीनिया की प्रतिमा ले चुकी है और लेनिन चौक अब रिपब्लिक चौक हो चुका है .
आर्मिनिया के इतिहास और समाज के निर्माण के समझने की दृष्टि तय करते हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल ऐतिहासिक संघर्षों से जन चेतना के निर्माण में दो परतों को महत्वपूर्ण मानते हैं –

“बहुदेववादी समाज के एकेश्वरवादी समाज में बदलने की परत , और समाजवाद के नाम पर कायम की गई तानाशाही और रुसी बर्चस्व से बाहर आने की परत . “ -४१

इस अध्याय में ईसाइयत और बहुदेववाद की चर्चा के मध्य गारनी के सूर्य मंदिर सहित स्थापत्य और कला की गवाह अनेक ऐतिहासिक इमारतों से गुज़रते हुए लेखक को यह सवाल परेशान करता है कि दुनिया के इतिहास में इन भव्य इमारतों के निर्माण करवाने वालों को ही हम जानते हैं उस निर्माण से जुड़े रहे कामगारों की यातना और शोषण के बारे में तथ्य नहीं के बराबर उपलब्ध हैं .   
अपने अध्ययन और यात्रा के दौरान पुरुषोत्तम अग्रवाल का विचारक और आलोचक मुखर हो जाता है . एक ज़रुरी सवाल उठाते हुए वह कहते हैं कि यदि हिंदुओं में समुद्र पार  करने कि धारणा बलवती थी तो फिर –“वे उस समय की ‘सभ्य दुनिया’ के कोने –कोने में , पूरब से पश्चिम तक –वियतनाम , कम्पूचिया से लेकर रूस और इथोपिया तक –पहुँच कैसे जाते थे ?”  जिस मारवाड़ी समुदाय में समुद्र पार न करने जैसी रूढ़ीवादिता सबसे अधिक समझी गई , कैसे उसी समाज के लोग व्यापार के सिलसिले में समुद्र पार फैले हुए थे , यह सवाल भी किताब उठाती है और इस विषय पर नए सिरे से विचार करने का सूत्र इतिहासविदों और विचारकों के समक्ष रखती है . वह भारत में सदियों से चली आ रही उस सामाजिक जड़ता पर भी प्रश्न उठाते हैं जिसमें अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के चलते बढ़ी आवा  –जाही  के बावजूद आज भी वर्ण व्यवस्था और जाति –प्रथा की जड़ें उतनी ही गहरी हैं , जितनी सदियों पहले थीं  .

स्टीफन फ्रेडरिक डेल की पुस्तक ‘इन्डियन मर्चेंट्स एंड यूरेशियन ट्रेड’ के माध्यम से पुरुषोत्तम अग्रवाल को सुरेन्द्र गोपाल के बारे में जानकारी मिलती है और वह न केवल मारवाड़ी व्यापारी बारायेव के बारे में जान पाते हैं बल्कि सुरेन्द्र्                गोपाल का अता पता खोज कर उनसे मुलाकात भी कर पाते हैं . यहाँ अरूप बनर्जी की भी एक पुस्तक का जिक्र है . इस यात्रा में हम देख पाते हैं यह किताब शुरूआत में  रास्ते में आ गए पड़ाव पर रुकने का आभास देने वाली  चंद दिनों की यात्रा नहीं है  बल्कि गहरे अध्ययन से उपजे चिंतन पर आधारित यात्रा है , जो पुन: हिंदी सराय के इतिहास को खंगालने की प्रतिबद्धता के साथ समाप्त होती है.      

अग्रवाल जी की फेसबुक पर सक्रियता के कुछ रोचक सन्दर्भ इस पुस्तक में भी जुड़े हैं . जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के लोगों के दुनिया के हर हिस्से में मिल जाने की चर्चा की चर्चा में फेसबुक पर लेखक का ध्यान इस मूल सवाल की और जाता है कि क्यों कर  सफलता की राह पर संघर्षरत पीढ़ी निराशा में अपने संघर्ष की तुलना सफलता प्राप्त कर चुके लोगों से करते हुए स्वयं को बेचारगी का भाव लिए हाशिए पर खड़ा पाती है , ऐसे में हम जनसँख्या के उस हिस्से को क्यों भूल जाते हैं जो सचमुच हाशिए पर खड़ी है .

   अस्त्राखान के बारे में पहले –पहल प्राप्त जानकारी के स्रोत  ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’ का हवाला देते हुए लिखते हैं –“जार मिखाइल फेद्रोविच (१६१३ -१६४५ ) के शासन-काल में भारतीय व्यापारी वोल्गा किनारे बसे हुए थे . अस्त्राखान की सराय ,वहां के गवर्नर के आदेश पर , १६२५ इस्वी  में बनाई गई थी . १६९५ में रूस का व्यापारिक प्रतिनिधि सिमियन मेलेंकी औरंगजेब के दरबार में हाजिर हुआ था . १७२२ में जार पीटर ने अस्त्राखान की यात्रा की और भारतीय व्यापारियों की समस्याएं सुनीं ....” 
     
यही वह सूत्र है जो ‘अकथ कहानी प्रेम की’ लिखने के दौरान किये गए शोध के मध्य पुरुषोत्तम अग्रवाल को हिंदी सराय की खोज से जोड़ता है . अस्त्राखान की यात्रा में भाषा और स्थानीयता जैसी समस्या तो अनिल जनविजय जैसे मित्र के साथ के चलते कोई समस्या ही नहीं रहती , समस्या जो लेखक को खलती है वह है समय की कमी की . बावजूद कम समय के जितना कुछ विवरण इस पुस्तक में आ चुका है वह खासा महत्वपूर्ण है और अगली यात्रा की संभावनाओं से भरपूर भी . अस्त्राखान में पहले दिन की खोज में तो लेखक के हाथ निराशा ही लगती है . समय की गति और शासन के चक्रव्यूह में उलझ कर हिन्दुस्तानी समुदाय की पहचान के अवशेष तक उन्हें नहीं मिल पाते , सिवाय उस ईमारत के जिस पर लगी पट्टिका ही उस स्थान के कभी हिंदी सराय होने की गवाही देती है . यहाँ भी वह सराय शब्द के प्रचलित अर्थ से भिन्न अर्थ की पहचान करते हैं –“ चंगेज खां  के 

पोते बातू के नाम पर सराय बातूर नाम दिया गया राजधानी को , सत्ता केन्द्र को , यानी बातू का महल . “  यानी अस्त्राखान की हिंदी सराय व्यापारियों रास्ते में रात भर विश्राम करने का ठिकाना मात्र नहीं थी  बल्कि हिंदी व्यापारियों की सम्पन्नता का प्रतिक थी .

इरादे अगर अटल हों तो समय की कमी भी आपको लक्ष्य तक पहुँचने से रोक नहीं सकती . हिंदी सराय की जड़ों तक पहुँचने की जो छटपटाहट लेखक में नज़र आती है वह उसे हिंदी सराय के रहस्य तक पहुंचा ही देती है . यह अस्त्राखान में उनका दूसरा दिन है. सिटी म्यूजियम में भी कोई सूत्र हाथ नहीं लग सका है . अब आप जा पहुँचते हैं सिटी लाइब्रेरी और यहाँ आप के हाथ लगता है कारू का खजाना . यहाँ जो दस्तावेजी विवरण पुरुषोत्तम अग्रवाल ने प्रस्तुत किये हैं और करनेव द्वारा चित्रित हिन्दुओ द्वारा पूजा –अर्चना के चित्र भी , वह पाठक को एक अलग कल्पना लोक में ले जाते हैं . यह लोक अस्त्राखान में हिंदू व्यापारियों के बर्चस्व और फिर उनके पतन की तथ्यों पर आधारित कहानी से जुड़ा है . इस वृतांत को पुरुषोत्तम अग्रवाल शोध वृत्त या यात्रा वृत्त मानने की छूट पाठक को देते हैं . बहुत सारे  शोधपरक ब्यौरे पाठक को उकता भी सकते थे पर भाषागत प्रयोग , पाठ को रोचक बनाये रखने की कला और बीच में विचारक के मुखर होने से वृतांत की एकरस होने से बच जाता है  . आप उस  विचित्र लोक में जा पहुँचते हैं जहाँ सदियों पहले हजारों मील दूर पूरी की पूरी हिदू सभ्यता अपने रीति –रिवाजों के साथ व्यापारिक बर्चस्व के बलबूते मौजूद थी , लेकिन जो हमलावर नहीं थी और न ही औपनिवेशिक ताकत , इसीलिए उसे समय बदल जाने पर पतन के दिन भी देखने ही थे .
यहाँ उपलब्ध जानकारी के आधार पर लेखक बताते हैं कि अस्त्राखान के सबसे धनी व्यापारी तो थे फते चंद लेकिन इसमें सबसे रोचक वृतांत है मारवाड़ी व्यापारी बारायेव का . –“ ...बीस साल के छोटे से अरसे में ही मारवाड़ी बारायेव ने जो उतार –चढ़ाव देखे , उनसे लगता है जैसे कि वह जीवन नहीं , कोई उपन्यास जी रहा था .”  

 कुछ लोगों के जीवन का फलक सचमुच  किसी उपन्यास से कम नहीं होता .  और उस जीवन को प्रस्तुत करने वाले लेखन की शैली भी किसी कथाकार की सी हो तो यह स्थापना और भी पुख्ता हो जाती है . बारायेव की सत्ता में पैठ और फिर ओरेनबर्ग के संस्थापक से व्यापारिक समझौते की पहल अस्त्राखान के गवर्नर को नागवार गुजरी और बारायेव जैसे व्यक्ति को बंदी बना लिया गया . यात्रा की इस उपलब्धि से लेखक की सारी उद्यिग्नता, संशय और उत्तेजना एक गहरे ठहराव में बदल जाती है  –“अनिल इधर –उधर टहल रहे थे , मैं एक बैंच पर बैठा था , चुपचाप . कोई यादें नहीं , कोई बातें नहीं , . इक्का –दुक्का कोई बात मन में आये भी तो बिना कोई छाप छोड़े फिसल जाए .कोई थकान नहीं , उत्तेजना भी नहीं . “
 इस किताब को लिखते हुए कई और किताबों के सूत्र भी पुरुषोत्तम अग्रवाल  पाठकों को देते चलते हैं . गेगहार्द मठ घूमते हुए अम्बार्तो इको के उपन्यास ‘नेम आफ दी रोज’ तथा ‘बदोलिनो’ , जैक गुडी की किताब ,द ईस्ट इन द वेस्ट’, अमिताभ घोष की ‘रिवर आफ स्मोक’ , अनुपम मिश्र की ‘आज भी खरे हैं तालाब’ , मुराकामी की ‘वन क्यू ऐट फॉर’ और भी न जाने कितनी किताबें .इस प्रक्रिया में एक और सवाल उन्हें परेशान करता है कि भारतीय व्यापारी धार्मिक महत्व की पांडुलिपियाँ तैयार करते थे पर अपनी यात्राओं के अनुभव और ब्यौरे क्यों नहीं लिखते थे . इस संशय में यह उम्मीद भी शामिल है कि जिन भारतीय पांडुलिपियों को वह अगली यात्रा में देख पाएंगे , कौन जाने उस उनमें कोई महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लग जाए . फिलहाल हिंदी सराय और बारायेव के बारे में जो भी प्राथमिक जानकारी है वह गैर भारतीय दस्तावेजों के माध्यम से ही प्राप्त होती है .   

यह रोमांचक और बौद्धिक यात्रा समाप्त होती है ,मानवीय संवेदनाओं से भरपूर हवाई यात्रा के अंतिम पन्नों के साथ और इस सवाल के साथ भी कि उन पन्नों की ज़रूरत सचमुच थी क्या किताब को मुकम्मल बनाने के लिए  . सबसे बड़ी बात यह कि पाठकों और शोधकर्ताओं को यह किताब केवल सूत्र सूचनाएँ ही प्रदान नहीं करती बल्कि जड़वादी सोच के विपरीत नई शोधपरक दृष्टि से भी लैस करती है .


निरंजन देव शर्मा , भारत भारती स्कूल , ढालपुर , कुल्लू , हि प्र -१७५१०१
फोन -९८१६१ ३६९००

हिन्दी सराय  अस्त्राखान वाया येरेवान पुरुषोत्तम अग्रवाल , राजकमल प्रकाशन ,पहला संस्कारण -2013 , मूल्य – 395/-

     

Saturday, January 5, 2013




वास्तव में यह कहानी मैंने बरसों पहले (1994) में लिखी थी जब जे . एन .  यू . में छात्र था । वहाँ एक घटना घटी थी, जिससे विचलित हुआ था । परिणाम स्वरूप कहानी लिखी गई । दिल्ली में गैंग रेप की दिल दहला देने वाली जो घटना घटी है या हजारों ही ऐसी घटनाएँ हमारे देश में , क्या यह सवाल नहीं उठातीं कि हमारे सामाजिक ढांचे में कोई खोट है । या फिर यह मामला केवल कानून व्यवस्था से जुड़ा हुआ है । शायद इस कहानी में उस वक्त मैंने यही जानने कि कोशिश की थी । पुनर्लेखन के दौरान कुछ चीज़ें बदली हैं पर मूल ढांचा वही रहा है ।  यह टी वी रिपोर्ट पर आधारित तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं है बल्कि नजदीक से देखी –समझी बरसों पुरानी घटना पर आधारित कहानी है ।

निरंजन देव शर्मा  , ढालपुर ,कुल्लू (हि . प्र . ) 175101 , फोन : 098161 36900


हर शनिवार की रात


मोहल्ला थम सा गया है । लोगों का हुज्जुम उस थाने के बाहर बढ़ता ही जा रहा है जहां उसे लॉकअप में रखा गया है  । थाने के बाहर बड़ी तादाद में पुलिस फोर्स मौजूद है । फांसी दो ! फांसी दो ! के नारों की गूंज अंदर लॉकअप तक उसके कानों में गूंज रही है । फांसी के ही लायक हूँ मैं ....वह बुदबुदाता है । अंग –अंग दुख रहा है । उसे होंठ सूजे हुए जान पड़ते हैं । शरीर और दिमाग सुन्न हुआ जान पड़ता है । पूरा घटनाक्रम उसकी आँखों के सामने से गुज़र जाता है ।

भड़ ... भड़ ...भड़ ..भड़ ... रात का दूसरा पहर होगा । शायद वह आधे नशे और आधी नींद में था कि भड़ाम से दरवाजा खुला । साला चूतिया ...हारामी ...हमारी भी नींद हराम कर रखी है .... टॉर्च कि तेज़ रौशनी में किसी ने तमाचा रसीद किया था । “चल पैहण के ... “लात... घूंसों की बौछार उस पर हो गई थी । पुलिस की गाड़ी में जब उसे ठूँसा गया तो उसकी कमीज़ तार-तार हो चुकी थी । उसे गाड़ी की ओर धकेलते हुए भी लात –घूंसों और गालियों की बौछार जारी थी । कालोनी में  लोग जमा थे । कोई कुछ बोल नहीं रहा था । मानो कई कठपुतलियाँ बेतरतीब खड़ी कर दी गई हों । सब सकते में थे । पुलिस की जिप्सी अंधरे को चीरती आगे निकल गई थी । भीड़ बिखरी और बिखर कर छोटे –छोटे झुंडों में सिमट गई ।

औरतें और बच्चे बतियाते हुए घरों की ओर खिसकने लगे हैं । पीछे मर्द रह गए हैं बतियाने और अंदाजे लगाने के लिए।  हर झुंड में कोई एक मुंह हाथ हिलाता हुआ कुछ बोल रहा है और कई जोड़े कान उसके इर्द –गिर्द सिमट आए हैं । उनके चेहरे पर असमंजस , क्रोध और घृणा के हाव –भाव आ –जा रहे हैं । इस बीच कोई गत्ते के डिब्बे तो कोई दुकान से पेटी की फट्टियां इकट्ठी कर लाया है आग तापने के लिए । अब छोटे झुंड अलाव के पास सरक कर बड़े झुंड में तब्दील हो गए हैं ।  

 “...पर देखने में तो शरीफ़जादा लगता था ...अच्छा मिलनसार भी था ....सुना शादी वादी भी हो चुकी है ...” बेकरी वाले करिमुद्दीन कुछ जानने की स्वाभाविक जिज्ञासा से बोले ।

“अजी ये शरीफ दिखने वाले पक्के आ घुन्ने होते हैं घुन्ने... हमें क्या पता कि भेड़ की खाल में भेड़िया हमारे ही घर में रह रहा है ...बीवी बच्चों वाले हैं हम लोग भी आखिर ... भुगतेगा अब ...पुलिस छोड़ेगी नहीं .... बाकी बात ठीक है आपकी कि  बात सलीके से करता था...   बाहर क्या-क्या करता था  ...राम जाने ....अभी भी तो तीन दिन से जाने कहाँ था ... “ संतोष दास बोले, उन्ही के मकान की छत पर बनी खोली में रहता था वह किराए पर । “अब देखिये शादी हुए जुम्मा –जुम्मा आठ दिन भी न हुए होंगे कि चले आए नौकरी के चक्कर में गाँव छोड़ कर दिल्ली । तब तो कहता था जल्दी बीवी को भी बुलवा लेगा ...लेकिन कहाँ साहब एक वह दिन है और एक आज का दिन ....परिवार की छोड़ो पिछले चार साल में खुद ही मुश्किल से तीन -चार बार गया होगा अपने घर ...किसी का कोई भरोसा नहीं इस जमाने में ” मास्टर संतोष दास अंदर ही अंदर ऊपर वाले का शुक्र मना रहे थे कि उनके अपने घर या पड़ोस में नहीं कर गया कुछ वरना आज किसी को मुंह दिखाने लायक न रहते ।

 “...आप ही की जुबान पर उसे राशन देता था ...अब देखिये छड़े बंदे की क्या गारंटी ....मास्टर जी वैसे एक बात है ...किराए पर घर –परिवार वाले को ही रखना चाहिए ...ऐसे छड़े –छटांक किस भरोसे के ” लालाजी जान चुके थे कि उनका उधार खाता अब चुकता होने से रहा । 
“  प्राइवेट नौकरी में खुद का गुज़ारा तो मुश्किल से होता है परिवार को क्या खाक बुलाता ...नंगा क्या नहाये और क्या निचोड़े...”  खैनी की पीक थूक कर मास्टर जी अपने गंदे- बेतरतीब दांत दिखाते हुए बोले ।

“अरे साहब मुझे तो इस पर पहले से ही शक था ... कुछ ज़्यादा ही शराफत झाड़ता था ... पर आठ साल की लड़की के साथ ऐसा कुकर्म ...राम ...राम ... । मैं कहूँ बाहर के लोगों को तो मकान देना ही नहीं चाहिए ।   “ लालाजी मुंह में सुपारी चुगलाते हुए बोले ।
आठ साल की मुन्नी के बलात्कार का आरोपी अपनी कालोनी में पकड़े जाने से लोग सन्न हैं । शरीफ लोगों की कालोनी में यह चिंता का विषय है ।

उधर पुलिस की जीप उसे लिए चली जा रही है । वह पुलिस की जीप में बैठा चला जा रहा है । सिर झुका हुआ है मानो गर्दन की हड्डी ही टूट गई हो ...दिसंबर का महीना।  बाहर गहरा कोहरा छा रहा है । दो एक पुलिस वाले भी थकान से ऊंघ रहे हैं ...वह गर्दन उठाता है बाहर घने कोहरे के अलावा कुछ नज़र नहीं आता। उसे घर से दिल्ली आना याद आता है ।

चार साल पहले रोज़ी- रोटी की तलाश में घर छोड़ कर दिल्ली आया था या यूं कहिए कि घर की मजबूरीयां उसे खींच कर दिल्ली ले गई थीं । घर में बूढ़ी माँ .... अब बुढ़ापे और बीमारी का तो रिश्ता ही ठहरा जन्म –जन्म का । ऊपर से नई –नई शादी की ज़िम्मेदारी । अभी बीवी होने का सुख ठीक से भोग भी न पाया था कि दिल्ली आना पड़ा । राधे भाई ने रेडीमेड कपड़ा बनाने की फैक्ट्री में सप्लाई एजेंट की नौकरी दिलवा दी थी । एक जगह से दूसरी जगह माल छोड़ना , कभी  अपनी खोली पर वापिस लौटना और जब कभी राधे भाई के यहाँ डेरा जमा लेना । आया तो था बड़े –बड़े सपने ले कर पर सपने थे कि दुः स्वप्नों में तब्दील होते जा रहे थे ।

राधे भाई का थोक के कबाड़ का बिजनेस था। उन्हीं  की पहचान के चलते नौकरी तो मिल गई थी पर साथ ही मजदूर यूनियन की लीडरी का चस्का भी लग गया था । उसका थोड़ा –बहुत पढ़ा –लिखा होना भी इसका एक कारण था । तीन महीने से वेतन न मिलने के चलते फैक्ट्री में हड़ताल हो गई थी ।

“मजदूरों का शोषण हो रहा है ... हमें अपनी मेहनत का पूरा पैसा नहीं मिलता । हमारा खून चूस कर ये लोग अपनी जेबें भरते हैं ...” सब छोटी फेक्टरीयों के कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी थी । वह मजदूरों की सभा में भाषण देता और तालियाँ बजने पर एक दिन सचमुच बड़ा नेता बनने के सपने देखता । “हम सब एक हो जाएँ तो दुनिया की कोई भी ताकत हमें अपने अधिकार पाने से रोक नहीं सकती ....” वह सपने देखता कि मेहनत करके वह अपना धंधा जमा लेगा और होने वाले बच्चे को अच्छे स्कूल में पढ़ाएगा । हालांकि दिल्ली के स्कूलों की फीस के बारे सुन –सुन कर उसके पसीने छूटने लगते । फिर भी अपनी समझदारी और मेहनत के अलावा यूनियान प्रेसिडेंट रामजतन यादव के नजदीकी होने का भी उसे भरोसा था ।

इधर रामजतन के मालिकों के साथ मिल जाने की खबर पर उसे विश्वास ही नहीं हुआ था । हालांकि राधे भाई ने  रामजतन और नेता गिरी से दूर रहने की सलाह दी थी । पर उस पर तो अधिकारों की लड़ाई लड़ने का जुनून सवार था ।  यादव ने कर्मचारियों के बड़े गुट को साथ ले कर अंदरखाने मालिकों से समझौता कर लिया था और हड़ताल ख़त्म करा दी थी । पैरों तले तो ज़मीन तब खिसकी जब अपनी नौकरी जाने की खबर उसे मिली । फेक्टरी ने छटनी कर दी थी । छाँटे गए साथियों के साथ नारेबाजी करने पर किराए के गुंडों से पिटा था सो अलग ।  बेरोजगारी के दिनों में किसी तरह पार्ट टाइम सेल्स्मेनी का काम मिलने से दाल –रोटी का जुगाड़ बैठ गया था । लेकिन अब उसके स्वभाव में वह खुलापन  नहीं रह गया था । वह चुप –चुप रहता ।
और फिर राधे भाई के क्वार्टर में दिन को घटी यह घटना ....।                   

पुलिस स्टेशन के रास्ते पर गाड़ी तेज़ी से बाएँ मुड़ती है तो वह दाईं ओर के कांस्टेबल पर गिर सा पड़ता है । एक भद्दी गाली  । वह अपने को संभालता है । दूर क्षितिज में रह रह कर बिजली कौंध रही है । वह कुछ और याद करने की कोशिश करता है ।

जब राधे भाई कभी बैठकी के लिए बुलाते तो वह चला जाता । बैठकी राजू के कमरे पर होती । हालांकि राधे भाई की बात न मानने का अपराधबोध उसे था पर राधे भाई ने कभी ऐसा जाहिर नहीं किया । सर्दी के दिनों में  अंधेरा जल्दी हो जाता और किसी न किसी शनिवार को राधे भाई के यहाँ से बैठकी के लिए फोन आ जाता । पार्ट टाइम ड्यूटी जहां थी वहाँ से राजू का  कमरा भी पंद्रह –बीस मिनट के फासले पर ही था। खोली में पहुँचने में एक –डेढ़ घंटा लगता  था । राधे भाई के पास काम करने वाले दो और लड़के  भी वहीं रहते थे । कभी मछ्ली तो कभी मटन बनता । अङ्ग्रेज़ी शराब का भी बंदोबस्त रहता । राधे भाई पीने के शौकीन थे पर घर पर कभी नहीं पीते थे । खाने –पीने की तो मौज रहती ही राधे भाई के जाने के बाद नीली –पीली फिल्म का भी इंतजाम रहता । वह आयोजन में शामिल रहता पर पी कर भी बोलता बहुत ही कम । देर रात तक शराब के साथ सिगरेट –बीड़ी का धुआँ उड़ता रहता और कई मामलों पर बहस छिड़ी रहती ।  खाने –पीने का खर्चा राधे भाई का होता। वह काम करने वाले लड़कों को खुश रखते थे ।  

नेताओं से नफरत थी राधे भाई को ।पीने के बाद वह छोटे लीडर को चोर और बड़े को डकैत कहते । कहते कि इन्हीं लोगों ने ये दुनिया आम आदमी के जीने लायक नहीं रखी है । तब उसे लगता कि परोक्ष में उस पर भी कटाक्ष कर रहे हैं । हालांकि वह जानता था कि राधे भाई स्वभाव से ऐसे नहीं हैं । खा –पी कर राधे भाई अपने क्वार्टर की ओर निकल जाते । कबाड़ख़ाने के पास ही वह दो कमरों के मकान में परिवार के साथ रहते थे । फिर वहाँ राजू और उनके पास काम करने वाले छोकरों का राज होता ।   

“चल बेटा चार्ली दिखा कुछ नीला –पीला ...वरना ऐसे ही नींद आ जाएगी । “ राधे भाई के जाते ही राजू का आर्डर होता  और चार्ली छिपाया हुआ वी सी डी निकाल देता  । राजू इनमें सीनियर था । पहली बार ऐसी फिल्म देखने पर उसके अंदर जुगुप्सा का भाव जगा था । निरी बर्बरता रहती है सेक्स के नाम पर इन फिल्मों में वह सोचता । पशु भी इनसे अच्छे । फिर धीरे –धीरे कब उसके अंदर भी हिंसक पशु ने जन्म ले लिया वह कभी जान ही न पाया । 
“अबे बत्ती तो बुझा दे “ आवाज़ आती ।
हाँ –हाँ बत्ती बंद करो यार “ आवाज़ का समर्थन होते ही बत्ती बंद हो जाती ।
“साउंड भी थोड़ा कम ही रखो भाई ....आवाज़ वर्मा जी तक पहुँच गई तो बोरिया –बिस्तर गोल समझो  ...” राजू की आवाज़।  
“राजू भाई ! वर्मा जी भी तो इस वक्त ...”

एक बेहया ठहाका लगता और फिर सब चुप । सन्नाटा । बत्ती बंद हो जाने पर वह भी राहत महसूस करता है । सभी अपने अपने चेहरे के भाव पढ़े जाने से बचना चाहते हैं । वह नसों में तनाव महसूस करता है । दिसंबर की सर्दी में भी उसकी हथेलियाँ पसीने से गीली हो जाती हैं । पह पहले से ही मैली जीन्स की पैंट पर दोनों हाथ पौंछ लेता है । सबके सो जाने के बाद भी उसे देर तक उसे नींद नहीं आई थी ।

कोहरे में अचानक रेड लाइट नज़र आने पर गाड़ी की ब्रेक लगती है । विचार तंद्रा टूटती है । सर्दियों में हड्डियों को गहरे तक बेध देने वाला दिल्ली का गहरा कोहरा ।  जाने क्यों ऐसी स्थिति में भी उसे अपने गाँव की धुंध याद आती है । तैरती –छितराती , बर्फ के ताज़े फाहों सी धुंध । और यहाँ दिल्ली का घुटन भरा कोहरा । उसे अक्सर रेड लाइट पर गाड़ी रुकने से कोफ्त होती है । चौराहे की लाल हरी सिग्नल लाइट्स और गाड़ियों की बत्तियाँ इस धुँधलाते माहौल में फीकी –फीकी दिख रही हैं । आकाश गंगा के तारों सी । बचपन में वह टकटकी लगाए टिमटिमाते आकाश में आकाश गंगा खोजा करता था । शायद किसी किताब में ही पढ़ा था उसने आकाश गंगा के बारे में । तब वह सोचता था कि वैज्ञानिक बनेगा । धुंधली यादें। गाड़ी स्टार्ट होने के झटके से पसलियों में दर्द उभर आती है । शाम को   घटी घटना याद आने पर हथेलियाँ ठंडे पसीने से गीली होने लगती हैं , ठीक वैसे ही जैसे ब्लू फिल्म देखते हुए हो जाया करती थीं । वह अपनी मैली सी जीन्स की पैंट पर दोनों हाथ पौंछ लेता है वैसे ही जैसे ब्लू फिल्म देखते हुए पौंछ लिया करता था ।

 उस सुबह राजू ने जगाया तो देखा दास बज गए थे । सब काम पर जाने के लिए तैयार थे । राधे भाई के यहाँ रविवार को ज़्यादा काम होता था । अधिकतर साइकिल वाले कबाड़ी इसी दिन माल लेकर कबाड़ख़ाने पहुँचते थे । उससे पहले लड़कों को शनिवार रात तक पहुंचे माल की छाँट करनी होती थी । आवाज़ लगाए जाने पर उसने करवट बदली । सर दुख रहा था ।   
“अबे उठ जा अब ।...  सुन जाने से पहले यह वी सी डी वगैरह सलीम भाई के यहाँ छोड़ दिजो  । कहना राजू ने भेजा है । बस .... वह कुछ पूछेगा नहीं ...पेमेंट हो चुकी है । और चाबी बलमा चाची के यहाँ । “ चलते –चलते राजू ने कहा ।

कपड़े सिलने का काम करती थी बलमा । उसी की पोती थी आठ साल की मुन्नी । मुन्नी की माँ साहब लोगों के यहाँ काम पर जाती और मुन्नी स्कूल से आ कर  बाहर खेलती रहती । अकसर वहाँ आने से मोहल्ले के लोग उसे जानते थे और फिर राधे भाई की सर परस्ती के चलते पराया नहीं समझते थे । काम इन दिनों पार्ट टाइम था । शाम को चार बजे भी निकलता तो पहुँच जाता । वह बाहर लोहे की कुर्सी पर बैठा रहता जो शायद राजू कबाड़ से ही उठा कर लाया था । मुन्नी बारह बजे तक स्कूल से आ जाती । वह उसे कभी टाफी तो कभी लालिपाप ला देता । कभी बाहर बैठ कर उसे पढ़ाता । मुन्नी उससे खूब हिल –मिल गई थी ।

राजू के जाने के बाद वह उठा तो सर बुरी तरह दुख रहा था । उसने पतीला खोल कर देखा । मटन बाकी था । रोटी नहीं थी । चाय की भी तलब हो रही थी । बाहर निकल कर उसने चौराहा पार किया । झुग्गी बस्ती के कोने में खुली दुकान पर चाय पी । ब्रेड खरीदी और मुन्नी के लिए लालीपाप खरीदा । उसने बटुए में रुपये गिने और न जाने क्या सोच कर चाय वाले से ही ठर्रा खरीदा । अब तक इस इलाके के बारे में वह सब कुछ जानता था । कमरे में आ कर उसे ख्याल आया कि वी सी डी भी वापिस करना है । कौन सी जल्दी है । उसने ठर्रा गिलास में उँड़ेला और एक सांस में गिलास खाली कर दिया । माचिस ढूंढ कर स्टोव जलाया और मटन गर्म करने रख दिया । उसे सर दर्द में कुछ राहत महसूस हुई । एक प्लेट में मटन निकाल कर उसने दूसरा गिलास बना लिया । अब अपने अंदर कुछ जगता सा उसे महसूस हुआ । उसने दरवाजे पर कुंडी चड़ाई और वी सी डी आन कर दिया । मटन और ब्रेड से पेट कि भूख तो शांत हो गई थी पर ठर्रे और फिल्म के असर से जो भूख जग रही थी वह उसके अंदर जन्म ले चुके हिंसक पशु की थी । उसने घड़ी देखी बारह बज चुके थे ।    

मोहल्ले में आठ साल की बच्ची के साथ बलात्कार हो गया था  ।

उधर उस कालोनी के सभ्य लोगों की चिन्ता बरकरार थी । जहां वह रहता था और जहां से पुलिस उसे उठा कर ले गई थी ।
“वैसे तो पढ़ा –लिखा भी था ,भगवान जाने क्या बुद्धि जगी....जिंदगी बर्बाद कर दी ....  बच्ची की उम्र का तो लिहाज किया होता ...जाने कौन से जन्म की सज़ा मिली है उस बच्ची को ।“ एक ने कहा ।
“सुना है बिना बाप की बच्ची थी ...कई दिनों से फुसला रहा था उसको ।“ दूसरे ने कहा ।
“कौन जनता था टाफी –चॉकलेट खिला- खिला कर एक दिन ऐसा कुकर्म करेगा” एक और ने कहा ।
एक ही ढर्रे पर चल रही कालोनी को चर्चा के लिए अच्छा खासा मसाला मिल गया था । उकताहट भरी जीवन में रोमांच की तलाश करने वाले नए –नए भेद खोल रहे थे । कोई एक तो मोहेल्ले से सीधा मोबाइल संपर्क में था और लेटेस्ट जानकारी उपलब्ध करा रहा था ।  
“सुना है डी वी डी प्लेयर और सी डी सब बरामद हुई है । दो –चार और को भी उठाया है पुलिस ने ...लेकिन काम तो इसी का था ...” मोबाइल संपर्क वाला अब सबकी जिज्ञासा के केंद्र में था । उसी ने बताया “पूरा मोहल्ला ठाणे के बाहर जमा है । माहौल तो कहते हैं ऐसा है कि लोग ठाणे के अंदर घुस कर उसे मार ही देंगे ।“
“खत्म ही कर देना चाहिए ऐसे लोगों को तो ....कानून नहीं कर सकता तो जनता के हवाले कर दो ...” तुरंत राय आई ।
“...अपने खन्ना जी कहाँ चले गए “ इधर कालोनी में वीडियो पार्लर चलाने वाले खन्ना जी घटना की खबर सुनने के बाद न जाने कब गायब हो गए थे ।   
“समझो भाई , माल ठिकाने लगाने गए और कहाँ गए ...मामला हुआ है तो पुलिस रेड हर जगह पड़ेगी न । पुलिस को भी तो कुछ करना है कारवाई के नाम पर ...”
“कुछ बोलो खन्ना जैसे लोगों ने नोट खूब बनाए इस धंधे में...”
“नोट निकले किसकी जेब से ...चोरी छिपे सब देखते हैं बंद कमरों में ...”
“पर अब धंधा मंदा है ...सब दिख जाता है मोबाइल पर ही ...आज कल के छोकरे यही सब करते हैं कालेज में । “
“ जब नेता तक असेंबली में यही सब करते पकड़े जा रहे हैं तो नौ जवान क्या करेंगे  ...टाइम बहुत खराब आ गया है ।“
“भाई...मुझे तो अब भी विश्वास नहीं होता कि वही रहा होगा ...“
“तो कह कौन रहा है आपको विश्वास करने को ...अब मुन्नी को कोई जाती दुश्मनी तो थी नहीं उसके साथ जो पुलिस को बयान दे दिया । बिस्तर कि चादर वगैरा सब ले गई है पुलिस अपने साथ । जुर्म तो साबित होने दो साहब जाएंगे कई साल के लिए अंदर ....विश्वास नहीं हो रहा इनको ...अंधे हैं बाकी सब एक इन्हीं कि आँखें हैं  “
“लालाजी मैं उसकी वकालत नहीं कर रहा। ऐसे काम करने पर सज़ा मिलना ज़रूरी है ...अपनी तो की ही.... बीवी बच्चों की जिंदगी भी बर्बाद कर दी । “
“तो भैया किसने कहा था ऐसा कुकर्म करने को .....और उस जैसे आदमी को चिन्ता होगी बीवी –बच्चे की ...कभी गया है चार साल से घर –गाँव । उधर बीवी कहीं और रगरलियाँ मना रही होगी और ये जनाब यहाँ कारनामे दिखा रहे हैं ...” लालाजी अपनी मुंहजोरी से बाज नहीं आते ।

इस बीच न्यूज़ चैनल और अखबार वाले भी कैमरे उठाए बौखलाए से कालोनी में पहुँचने लगे हैं । । लोग कैमरे के सामने आने के लिए उत्सुक हैं ।  उचक –उचक कर एक –दूसरे को ठेलते हुए बढ़ –चढ़ कर बतिया रहे हैं ।

Monday, November 19, 2012



बाबाजी

अद्भुत व्यक्ति थे बाबाजी ।
स्कूल धीरे –धीरे तरक्की कर रहा था । बड़ी कक्षाओं के छात्र स्कूल में कैंटीन चाहते थे। पास ही बेकरी चलाने वाला परिचित एक उम्र दराज व्यक्ति को इस सिफारिश के साथ लाया कि वह कैंटीन चलाएंगे और रहेंगे भी उसी में । आप के स्कूल की देख –रेख हो जाएगी और इनकी रोज़ी-रोटी चल जाएगी । श्वेत धवल दाड़ी में वह बूढ़ा फकीर सा दिखता था । बाबाजी चला पाओगे कैंटीन । मेरे मुँह से उस व्यक्ति के लिए बाबाजी शब्द ही निकला । उधर से जवाब आया – बच्चित्तर सिंह नाम है जी । मैंने परिचित को एक ओर ले जा कर कहा – एक तो वृद्ध हैं ऊपर से सुनाई भी कम देता है फिर आप कहते हो कि केंटीन चलाएंगे और स्कूल की देख रेख भी करेंगे । ऐसा न हो कि उल्टे मुझे ही इनकी देख रेख करनी पड़े ।  जालंधर से सीधे आए हैं , परिचित ने कहा । थके हुए हैं इसलिए .. आदमी बहुत पायदार हैं , शिकायत का मौका नहीं मिलेगा । ससुर हैं मेरे । ज़िद यही है कि दामाद के यहाँ नहीं रहेगे ।
मैंने उन्हे जगह दिखाई । छोटा सा कमरा था । कैंटीन के लिए तो फिर भी मुफीद पर साथ में कोई रहे भी यह संभव नहीं था । खिड़की भी छोटी सी थी । यह जगह है बाबाजी । यहाँ रहोगे कैसे । रह लेंगे सर जी , आदमी को सोने के लिए कितनी जगह चाहिए । सर जी  संबोधन में आत्मीयता थी , आदर था । मैंने हामी भर दी । लूँगा कुछ नहीं बस स्कूल के ताले खोलने और लगाने की जिम्मेदारी आप की होगी , मैंने कहा।
 बाबाजी ने कैंटीन शुरू कर दी । बाबाजी की चाय अध्यापकों के बीच ट्रेड मार्क बन गई । चाय के शौकीन अध्यापक कहते कि तीन रुपये में ऐसी लाजवाब चाय मिलती कहाँ है । उन दिनों बाज़ार में चाय का दाम चार रुपये था । बच्चों के लिए ताजा खाने की चीजें बेकरी से आ जातीं । कुछ सामान बाजार से । बाबाजी अपनी भलिमनसाहत के चलते सबके चहेते हो गए थे ।
स्कूल की नई इमारत का काम शुरू हुआ । बाबाजी ने सीमेंट के पीलरों और दीवारों को पानी से सींचने और देख –रेख का काम अपने जिम्मे ले लिया । मैंने उनकी कुछ तनख्वाह मुकर्रर कर दी । एक दिन सुबह –सुबह ज़ोर –ज़ोर से लड़ने की सी आवाजें सुन नींद खुली । बाहर निकल कर झाँका तो देखता हूँ कि बाबाजी ने एक व्यक्ति को गले से पकड़ रखा है और वह छूटने कि नाकाम कोशिश में अनाप –शनाप बके जा  रहा है । माजरा क्या है सुबह –सुबह । मैं तेज़ी से नीचे उतरा ।  बाबाजी से उस व्यक्ति को छोड़ देने को कहा । तफतीश करने पर मालूम हुआ कि भले घर के सज्जन पास में कहीं रहते हैं । कुल्लू में सर्दियों में कमरा गरम रखने वाला तंदूर जलाते हैं । इसी फेर में निर्माण स्थल से लकड़ी की टूटी –फूटी बल्लियाँ समेट रहे थे कि बाबाजी ने धर लिया। बाबाजी छोड़ने को तैयार न थे कि बिना पूछे कुछ भी उठा लेना चोरी ही है । मैंने जैसे –तैसे बीच –बचाव कराया। इस बीच बाबाजी की बेटी को भी स्कूल के हॉस्टल में ही काम मिल गया। वह अपने कमरे में रहती और बाबाजी अपनी खोली में सफाई करके भूमि आसान बिछाते । धीरे –धीरे बाबाजी की सेहत गिरने लगी । उच्च रक्तचाप और दूसरे रोगों ने जकड़ लिया । सर्दी के दिनों में मैंने सलाह दी कि ऊपर कमरे में सो जाया करें पर बाबाजी कहते कि अपनी कुटिया में ही नींद अच्छी आती है। छोटे सी जगह को कुटिया कहने वाले बाबाजी गज़ब के संतोषी और ईमानदार थे ।
पढ़े –लिखे भले ही कम थे पर व्यावहारिक ज्ञान गज़ब का था । कौन सा अध्यापक कैसा है उन्हे सब पता रहता । किसी का कक्षा में नियंत्रण कम है और बच्चे शोर या शरारत करते हैं तो मुझे कहते –इना मास्टराँ नूँ जरा कस के रखया करो जी । मास्टर दे होंदे बच्चे रौला नईं कर सकदे जी। थे पहाड़ी पर बोलते पंजाबी थे । बचपन में घर से पंजाब निकाल गए थे । कई पापड़ बेले और फिर सिनेमा हाल में आपरेटर की नौकरी पकड़ ली । बाबाजी फोटो निकाल कर दिखाते । लंबी –चौड़ी कद काठी । काली रोबदार मुछें और आकर्षक चेहरा । मैं कहता लड़कियाँ तो आप पर फिदा रहती होंगी । बाबाजी के झुर्रीदार चेहरे पर मुस्कान तैर जाती ।  “ टैम –टैम दी गल है जी । हूण ते जांदी बहार द मेला बाकी है जी ।       
स्कूल में छुट्टियों के बाद जब हम वापिस लौटे तो बाबाजी काफी बीमार थे । कुछ दिन घर रह आने की इजाज़त ले कर जो गए तो फिर वापिस नहीं लौटे । वह जान चुके थे कि शरीर अब और अधिक साथ नहीं देगा । एक दिन उनके गुज़र जाने का समाचार मिला । मैं और मेरी पत्नी व्यथित रहे । उनके गाँव जा कर उनसे एक बार मिलने की इच्छा मन में ही रह गई । बाबाजी साधारण आदमी थे । साधारण रहना ही तो कठिन हो गया है आज के दौर में । 

Friday, October 2, 2009

कुछ और दृश्य कुल्लू दशहरा के











































कुल्लू का दशहरा विजय दशमी के दिन सात दिन के लिए शुरू होता है जब बाकी देश मैं ख़तम हो जाता है














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कुल्लू का दशहरा विजय दशमी के दिन सात दिन के लिए शुरू होता है जब बाकी देश मैं ख़तम हो जाता है