Monday, November 19, 2012



बाबाजी

अद्भुत व्यक्ति थे बाबाजी ।
स्कूल धीरे –धीरे तरक्की कर रहा था । बड़ी कक्षाओं के छात्र स्कूल में कैंटीन चाहते थे। पास ही बेकरी चलाने वाला परिचित एक उम्र दराज व्यक्ति को इस सिफारिश के साथ लाया कि वह कैंटीन चलाएंगे और रहेंगे भी उसी में । आप के स्कूल की देख –रेख हो जाएगी और इनकी रोज़ी-रोटी चल जाएगी । श्वेत धवल दाड़ी में वह बूढ़ा फकीर सा दिखता था । बाबाजी चला पाओगे कैंटीन । मेरे मुँह से उस व्यक्ति के लिए बाबाजी शब्द ही निकला । उधर से जवाब आया – बच्चित्तर सिंह नाम है जी । मैंने परिचित को एक ओर ले जा कर कहा – एक तो वृद्ध हैं ऊपर से सुनाई भी कम देता है फिर आप कहते हो कि केंटीन चलाएंगे और स्कूल की देख रेख भी करेंगे । ऐसा न हो कि उल्टे मुझे ही इनकी देख रेख करनी पड़े ।  जालंधर से सीधे आए हैं , परिचित ने कहा । थके हुए हैं इसलिए .. आदमी बहुत पायदार हैं , शिकायत का मौका नहीं मिलेगा । ससुर हैं मेरे । ज़िद यही है कि दामाद के यहाँ नहीं रहेगे ।
मैंने उन्हे जगह दिखाई । छोटा सा कमरा था । कैंटीन के लिए तो फिर भी मुफीद पर साथ में कोई रहे भी यह संभव नहीं था । खिड़की भी छोटी सी थी । यह जगह है बाबाजी । यहाँ रहोगे कैसे । रह लेंगे सर जी , आदमी को सोने के लिए कितनी जगह चाहिए । सर जी  संबोधन में आत्मीयता थी , आदर था । मैंने हामी भर दी । लूँगा कुछ नहीं बस स्कूल के ताले खोलने और लगाने की जिम्मेदारी आप की होगी , मैंने कहा।
 बाबाजी ने कैंटीन शुरू कर दी । बाबाजी की चाय अध्यापकों के बीच ट्रेड मार्क बन गई । चाय के शौकीन अध्यापक कहते कि तीन रुपये में ऐसी लाजवाब चाय मिलती कहाँ है । उन दिनों बाज़ार में चाय का दाम चार रुपये था । बच्चों के लिए ताजा खाने की चीजें बेकरी से आ जातीं । कुछ सामान बाजार से । बाबाजी अपनी भलिमनसाहत के चलते सबके चहेते हो गए थे ।
स्कूल की नई इमारत का काम शुरू हुआ । बाबाजी ने सीमेंट के पीलरों और दीवारों को पानी से सींचने और देख –रेख का काम अपने जिम्मे ले लिया । मैंने उनकी कुछ तनख्वाह मुकर्रर कर दी । एक दिन सुबह –सुबह ज़ोर –ज़ोर से लड़ने की सी आवाजें सुन नींद खुली । बाहर निकल कर झाँका तो देखता हूँ कि बाबाजी ने एक व्यक्ति को गले से पकड़ रखा है और वह छूटने कि नाकाम कोशिश में अनाप –शनाप बके जा  रहा है । माजरा क्या है सुबह –सुबह । मैं तेज़ी से नीचे उतरा ।  बाबाजी से उस व्यक्ति को छोड़ देने को कहा । तफतीश करने पर मालूम हुआ कि भले घर के सज्जन पास में कहीं रहते हैं । कुल्लू में सर्दियों में कमरा गरम रखने वाला तंदूर जलाते हैं । इसी फेर में निर्माण स्थल से लकड़ी की टूटी –फूटी बल्लियाँ समेट रहे थे कि बाबाजी ने धर लिया। बाबाजी छोड़ने को तैयार न थे कि बिना पूछे कुछ भी उठा लेना चोरी ही है । मैंने जैसे –तैसे बीच –बचाव कराया। इस बीच बाबाजी की बेटी को भी स्कूल के हॉस्टल में ही काम मिल गया। वह अपने कमरे में रहती और बाबाजी अपनी खोली में सफाई करके भूमि आसान बिछाते । धीरे –धीरे बाबाजी की सेहत गिरने लगी । उच्च रक्तचाप और दूसरे रोगों ने जकड़ लिया । सर्दी के दिनों में मैंने सलाह दी कि ऊपर कमरे में सो जाया करें पर बाबाजी कहते कि अपनी कुटिया में ही नींद अच्छी आती है। छोटे सी जगह को कुटिया कहने वाले बाबाजी गज़ब के संतोषी और ईमानदार थे ।
पढ़े –लिखे भले ही कम थे पर व्यावहारिक ज्ञान गज़ब का था । कौन सा अध्यापक कैसा है उन्हे सब पता रहता । किसी का कक्षा में नियंत्रण कम है और बच्चे शोर या शरारत करते हैं तो मुझे कहते –इना मास्टराँ नूँ जरा कस के रखया करो जी । मास्टर दे होंदे बच्चे रौला नईं कर सकदे जी। थे पहाड़ी पर बोलते पंजाबी थे । बचपन में घर से पंजाब निकाल गए थे । कई पापड़ बेले और फिर सिनेमा हाल में आपरेटर की नौकरी पकड़ ली । बाबाजी फोटो निकाल कर दिखाते । लंबी –चौड़ी कद काठी । काली रोबदार मुछें और आकर्षक चेहरा । मैं कहता लड़कियाँ तो आप पर फिदा रहती होंगी । बाबाजी के झुर्रीदार चेहरे पर मुस्कान तैर जाती ।  “ टैम –टैम दी गल है जी । हूण ते जांदी बहार द मेला बाकी है जी ।       
स्कूल में छुट्टियों के बाद जब हम वापिस लौटे तो बाबाजी काफी बीमार थे । कुछ दिन घर रह आने की इजाज़त ले कर जो गए तो फिर वापिस नहीं लौटे । वह जान चुके थे कि शरीर अब और अधिक साथ नहीं देगा । एक दिन उनके गुज़र जाने का समाचार मिला । मैं और मेरी पत्नी व्यथित रहे । उनके गाँव जा कर उनसे एक बार मिलने की इच्छा मन में ही रह गई । बाबाजी साधारण आदमी थे । साधारण रहना ही तो कठिन हो गया है आज के दौर में ।